Achchaaiyan - 1 in Hindi Fiction Stories by Dr Vishnu Prajapati books and stories PDF | अच्छाईयां

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अच्छाईयां

लेखांक – १

मुंबई से रात को निकली बस की ये सवारी सुबह की पहली किरन के साथ अपने आखरी मुकाम तक पहुच चुकी थी | शहर की भीड़ में बसने अपनी रफ़्तार कम कर ली थी | सुबह की धुप के साथ ये शहर मानो फिर से सजने लगा था | मुंबई से भले ये छोटा शहर हो मगर यहाँ पर भी लोग सुबह में लोग घर छोड़कर रास्तो पर निकल आये थे, कोई दौड़ रहा था तो कई लोग मिलके सुबह की चाय का आनंद ले रहे थे | घर में बीबी के हाथ की चाय भले ही पी हो मगर ये चोराहे पे अपने जैसे ही दुसरे लोगो के साथ चाय पीने का आनंद भी कुछ अलग होता है | ये सारे लोग हरदिन दौड़नेवालो में से है, जिनके सुख एवं दुःख एकसमान है, सुबह हुई तो बस दौड़ना है, ये जो रुक गए तो उनकी और उनके परिवार की जिन्दगी भी रुक जाती है | ये सब उन बिरादरीवालो में से थे जहा अपने और अपने परिवार के सुख के लिए उन्हें अब दिनभर कड़ी महेनत करनी है, इस सुबह में वो जीवन के पूराने दुःख एवं अपने संघर्ष को भूलकर चाय के साथ अपने गम भी हँसते हँसते पी रहे थे | सबको पता था की ये चाय ख़तम होने के बाद तो जिन्दगी के लिए भागना ही है पर ये एक छोटी चाय तो उनके लिए कुछ पल के लिए दुखो को रोकने वाला ठहराव बन जाता था |

सड़क की पगदंडी तो बची ही नहीं थी, वहा लोगोने अपनी छोटी छोटी दुकान खोल रखी थी | लोगो को चलने के लिए मजबूरन सड़क पर आना पड़ता था और इसलिए सड़क पर भी भीड़ बढ़ रही थी | आगे ट्राफिक सिग्नल था मगर लगा की वो केवल दिखावे के लिए ही था, वहा जो लाइट्स थी उससे लोगोमे कोई फर्क नही पड़ता था |

यहाँ पर मजदूरमंडी और सब्जीमंडी दोनों सड़क पर ही लग चुकी थी इसलिए ट्राफिक कुछ समय के लिए ठहर चूका था | सब अपनी मनमानी करते थे और वो अकेला सही है बाकी सब गलत है वैसे वो खुद भी चिल्ला रहे थे और उनके व्हीकल के हॉर्न भी उससे ज्यादा शोर मचा रहे थे |

पैदल चलनेवालो का तो ये रोज का था | उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता था वो तो अपनी जिंदगी की भीड़ में ही फंसे थे तो ये भीड़ तो उनके लिए आम बात थी, वो अपने लिए जहा जगह मिले वहा पैर जमाकर चलते ही रहते थे |

बसमें बैठे लोगोने भी ये नॉनसेन्स लोगो के बारे में अपनी अपनी राय देना शुरू कर दिया था, हलाकि वे जब रास्ते पर चलते हो तो वे भी इस तरह नॉनसेन्स बन जाते है ऐसा वो कभी नहीं सोचते | हर आदमी के सोचने का नजरिया अलग इसलिए बन जाता है की उनके विचार में वो खुद ही सही है वैसे सोचता है, और अभी इस बस में सभी लोग सही सोचनेवाले बन गए थे | यदि उनकी जगह बस में नही मगर पैदल चलनेवालो में होती या कार चलानेवालो में होती वो उनकी राय बदल जाती |

एक मजदूर अपनी लोरी को खींचते हुए बिच सड़क तक आ चूका था, उनका शरीर जिंदगीभर की मजदूरी के कारन सुख चूका था फिर भी वो अपनी लोरीमें इतना भारी सामान ले के जा रहा था की लग नहीं रहा था की वो ये सड़क भी पार कर पाएगा | लोग देख रहे थे, उनको ताने मार रहे थे, तुम्हारे कारन ये ट्राफिक बढ़ गया है... जल्दी करो... वो बिचारा लोरी को नहीं अपनी जिंदगी को खिंच रहा था, उनके अगल बगल में देखने वाले और राय देने वाले इकठ्ठा हो गए थे | आज इस ट्राफिक का वो ही अकेला जिम्मेदार हो वैसा माहोल बन चूका था | वो भी क्या करता, उनको जगह मिलती वैसे आगे निकलता, उनकी लोरी में साइडमिरर या एकसीलेटर तो लगे नहीं थे की वो भी जल्दी कर पाता |

तभी ये बस में बैठा अनजान मुसाफिर नीचे उतरा और वो लोरीवाले को सहारा दिया | चारहाथ हुए तो उनके लिए काम आसान हो गया, मनो उसे साइडमिरर और एकसीलेटर दोनों एक साथ मिल गये हो वैसे वो तेजी से नीकल गया, उसने मुड़कर भी नहीं देखा की किस अनजान आदमीने उसकी मदद की ? शायद ये उसके लिए रोज की बात होगी |

अब ट्राफिक कुछ हल्का हुआ तो वो वापिस बस में अपनी सिट पर बैठा | पीछे से अभी भी रायदेनेवाले तो कह रहे थे ऐसे लोगो की मदद ही नहीं करनी चाहिए उनको सिखाना चाहिए की लोरीमें कितना सामान भरना है ? ट्राफिक में क्या करना है ? साथ में दूसरा मजदूर भी रखना चाहिए...

वो मुसाफिर करीबन तीस साल के करीब का होगा उन्होंने उनकी बातो पे ध्यान नही दिया, वे तो खिड़की से बहार शहर को देखने में फिर मशगूल हो गया |

‘तुमने अच्छा किया बेटा..’ पूरी रातसे बगलमें बैठे बुजुर्गने सुबह तक पहलीबार बात की |

वो केवल मुस्कुराया वो मानो शहर को देखने आया हो वैसे बारबार बहार ही देख रहा था | बस अब शहर के मुख्य मार्ग पर दौड़ने लगी |

‘इस शहर में नए आये लगते हो..?’ वो बुजुर्गने अपनी बात आगे चलाई |

‘हाँ भी और नहीं भी...’ उसने जो जवाब दिया वो उस बुझुर्ग के समज के बहार था |

‘तुम खोये खोये लगते हो... क्या इस शहर में तुम्हारा कुछ खो गया है ? या कुछ ढूंढने आये हो? ’ वे बुझुर्ग मानो इस युवा की आँखे पढ़ चुके थे |

‘मै क्या ढूंढने आया हु ? मैंने क्या खोया है ? वे सब तो मुझे पता भी नहीं है मगर मैंने इस शहर से ही सबकुछ पाया है इतना ही याद है’ वो लड़का अब खुलके बात करने को राजी हो गया ऐसा लगा |

वे बुझुर्ग की आंखोमे चमक आई और बोले, ‘तुम्हारी ये बात मुझे पसंद आई, लोग तो जिंदगीभर क्या क्या खोया और क्या क्या पाना है उसमे ही खोये खोये रहते है मगर तुम तो यहाँ सबकुछ मिला है वो ही याद रखते हो तो काफी समजदारी की बात है, और तुमने उस मजदूर आदमी की मदद की उससे काफी मै प्रभावित हुआ हूँ |’

‘जी, आपका धन्यवाद..! मुझे तो यही पता है की हमें अपनी अच्छाईया पर ही ध्यान देना चाहिए.. और मेरी अच्छाईया मुझे जिस रास्ते पर ले जाती है वहा मैं चलता हूँ |’

ये बात सुनकर वे बुझुर्ग इस युवक की आंखोमे देखने लगे | मगर इसकी आँखे तो अभी भी शहर को देखने में खोई थी | उसकी आँखे भी उसकी बातो की तरह सीधीसादी थी मगर आज के समय में सीधीसादी बात ही लोगो को राज नहीं आती |

वो काफी सालो के वाद शहर को देख रहा था | वो बुझुर्गने उसको खिड़कीवाली सिट पे बैठने को कहा तो उस युवा की आंखोमे ख़ुशी की लकीर दिखाई दी | उन्होंने अपनी जगह बदली और वो बहार की दुनिया देखने में खो गया |

‘अच्छा तो यहाँ पर भी बड़ेबड़े शोपिंग मोल बन गए? और ये भीडभाड भी बढ़ गई है , पैदल चलने वालो से व्हीकल चलाने वालो की संख्या बढ़ गई है, देखो पहेले तो यहाँ कुछ भी नहीं था और ये जगह तो खाली पडी थी और यहाँ पर आज थोड़ी जगह भी नहीं बची है, इस शहरने तो पुरी सूरत ही बदल दी है’ वो बारबार बडबडा रहा था मगर वो बुझुर्ग आदमी बिना कुछ कहे सून रहा था |

‘ओह यहाँ तो बड़े झूले हुआ करते थे.... वो कहा गए...?’

तुम कितने साल बाद इस शहर में आये हो...?’ आखिर वो बुझुर्गने पूछा |

‘पांच साल पांच महीने तेरह दिन...’ उसने एक एक दिन गिनकर रखा था |

‘यहाँ पर तुम्हारा कौन रहता है...?’

इस प्रश्न पर उसने मुड के देखा, पहलीबार वो बेचैन हो गया, वो चुप हो गया... उनकी आंखोमे जो ख़ुशी की लकीर थी वो धुंधली हो गई | उनकी खामोशी में भी कोई आवाज थी, वो कहना भी चाहता था और शायद नहीं भी....

तभी बस अपनी मंजिल तक पहुँच गई और सारे मुसाफिर अपना अपना लगेज उतारने में और जल्दी नीचे उतरने में खड़े हो गए थे |

‘अच्छा तुम्हारा नाम क्या है ?’ वो बुझुर्गने आखरी प्रश्न पुछा |

‘सूरज....’

तभी सूरज की एक हलकी किरन उनकी आँखों से निकली और वो फिर से चमक उठी |

बस के मुसाफिरों के लिए तो यहाँ प्रवास ख़त्म हुआ था मगर सूरज की जिंदगी का नया प्रवास यही से शुरू हो रहा था, कोई ओर नहीं जानता था की अब उसकी जिंदगी आगे उन्हें कहा ले जायेगी...?

डॉ. विष्णु प्रजापति, कडी

9825874810